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२९ जनवरी, १९५८
''निश्चेतनामें भी, कम-से-कम छिपी हुई आवश्यकताकी एक ऐसी प्रेरणा है जो रूपोंके विकासको उत्पन्न करती है और रूपोंमें विकास पाती हुई चेतना है; यह भली-भांति माना जा सकता है कि यह प्रेरणा गुप्त चेतन पुरुषकी विकसनशील इच्छा है और प्रगतिशील अभिव्यक्तिके लिये उसका दबाव विकासमें छिपे हुए अभिप्रायका प्रमाण है... । अपने-आपको अनिवार्य रूपसे पूर्ण करनेवाला सत्ताका सत्य विकासका मूल- भूत तथ्य होगा, किंतु इच्छा और उसका उद्देश्य भी क्रिया- शील तत्त्वके उपकरणके अंगके रूपमें, उसके एक अंशके रूप- मे अवश्य विद्यमान रहमे चाहिये ।'' ( 'दिव्य जीवन')
मधुर मां, वाक्यका पिछला हिस्सा मेरी समझमें नहीं आया ।
तुम क्रया नहीं समझे? वे कहते हैं कि क्रमविकास 'सत्ताके सत्य' की, जो विश्वका सारमृत तत्व है, अपरिहार्य संसिद्धि परिणाम ह । इस 'सत्य'की सिद्धि, 'सत्ताके सत्य'की संसिद्धि ही क्रमविकास आधारभूत तत्व है, अर्थात्, यही क्रमविकासका निमित्त और कारण है; लेकिन स्वभावतया ही, यदि इस 'सत्ताके सत्य'की संसिद्धि अनिवार्य है ता वह एक संकल्प और योजनाकी मदरसे ही होनी चाहिये । कोई उद्देश्य होना चाहिये और उस उद्देश्यकी पूर्तिके ' लिये संकल्प होना चाहिये ।
यह जरूरी है कि इस सत्यकी उपलब्धिके लिये उसमें उपलब्ध करनेकी इच्छा-शक्ति हों और कोई उद्देश्य, कोई योजना, परियोजना हो जिसे वह उपलब्ध करना चाहता है । कुछ उपलब्ध करनेके लिये मनुष्यमें उसके लिये संकल्प होना चाहिये और संकल्पके लिये यह जानना जरूरी है कि वह क्या करना चाहता है । यदि उसे यह पता न हो कि वह क्या करना चाहता है तो वह उसे नही कर सकता । पहले उसे जानना होगा, अपने सामने कोई योजना, कोई रवाका, चाहे तो कार्यक्रम रखना होगा, उसे यह जानना होगा कि वह क्या करना चाहता. है; उसके बाद करनेका संकल्प करना होगा और तब वह उसे कर पायेगा ।
तुम्हें मालूम है कि वे कहते हैं : यह विश्व वैश्व 'सत्ता' के सत्यकी
१४५ क्रमिक परिपूर्ति है । विश्वका विस्तार वैश्व पुरुषके सत्यकी वर्धनशील, क्रमिक उपलब्धि है; लेकिन इस सत्यकी चरितार्थताके लिये यह आवश्यक है कि इसके पास कोई योजना हो, अर्थात्, इसे पता हो कि उसे क्या करना है और उसे संपन्न करनेके लिये संकल्प हो ।
जब तुम कोई काम करने लगते हो तो तुम जानते हो कि तुम क्या करना चाहते हो, है न? और तब तुममें उसे करनेकी इच्छा होती है, नहीं तो नहीं कर सकते । यह भी वही बात है, वे यही कह रहे है ।
यह मानना पड़े गा कि विश्वकी कोई योजना है, यह संयोगसे पैदा होनेवाली कोई चीज नहीं है, और इस योजनाकी परिपूर्तिके लिये परम 'इच्छा-शक्ति' कार्यरत है, नहीं तो कुछ भी नहीं हों सकता । तुम देखते हों न कि श्रीअरविंद उन लोगोंका खंडन करते है जो कहते है कि विश्वकी कोई योजना और संकल्प नहीं है । जिस क्षण हम यह मान लेते है कि विश्वके पीछे एक चेतना -- एक सचेतन सत्ता - है तो हम सहज ही सीधे-सीधे यह भी मान लेते हैं कि विश्वकी कोई योजना है और इस योजना-पूर्तिके लिये कोई इच्छा-शक्ति भी है । वे बस यही कहते । यह तो आसान है, है न?
तुम्हें इसी बातको व्यक्तिगत रूपमें घटाना होगा । जब कोई सचेत होता है और सचेतनतासे कोई काम करता है तो निश्चय ही वह यह जानता है कि वह क्या करना चाहता है । उसकी क्या रूपरेखा है । उदाहरणके लिये, जब तुम छात्रावासके वार्षिक उत्सवके लिये कोई कार्य- क्रम तैयार करते हो तो तुम्हारा कोई उद्देश्य होता है, होता है न? तुम वार्षिकोत्सवके लिये कुछ कार्यक्रम बनाना चाहते हों, फलत: तुम एक योजना बन। ते हो, क्या खेला जायगा, कैसे खेला जायगा, इसका चुनाव करते हों और साथ ही इसे करनेकी इच्छा करते हो, वरना तुम उसे करोगे ही नहीं -- बस, श्रीअरविंद भी ठीक यही कहते हैं । अर्थात्, यदि यह विश्व एक सचेतन सत्ता है और यदि कोई ' चेतना' अपने-आपको अभिव्यक्त करती है तो वह अवश्य ही किसी योजनाके अनुरूप और अभिव्यक्तिके संकल्पके साथ अभिव्यक्त करती है -- बहुत आसान है यह तो । समझे?... थोड़ा-सा?
क्या तुम नहीं जानते कि कुछ करनेके लिये मनुष्यको यह ज्ञान होना चाहिये कि उसे क्या करना है, फिर उसे करना चाहिये, करनेका संकल्प होना चाहिये? यहांतक कि यदि तुम यहांसे वहांतक जानेकी सोचते हों तो तुम्हें निश्चय करना होगा कि तुम वहां जाना चाहने हो और फिर होनी चाहिये वहांतक चलनेकी इच्छा, नहीं तो तुम सरकोगे ही नही । है न ऐसा?
२४६ हां मां ।
आह! बस ऐसा ही है, ऐसा ही सरल ।
( मौन)
साधारणतया, लोग चीजों इतने सहज और स्वाभाविक ढंगसे करते है कि वें व्यान ही नहीं देते कि वे कैसे कर रहे हैं । यदि ३ अपनेसे पूछ बैठे कि यह कैसे होता है तो सारी प्रक्रियासे अवगत होनेमें कुछ क्षण लग जायेंगे । तुमने रहनेकी ऐसी आदत डाल ली है कि तुम यह भी नहीं जानते कि यह कैसे होता है । जीवनकी (सभी क्रियाएं) और गतिविघियां सहज, यंत्रवत्, प्रायः अचेतन अवस्थामें अर्धचेतनाके साथ की जाती है, और इतनी आसान-सी बात भी ख्यालमें नही आती कि कुछ करनेसे पहले यह मालूम होना चाहिये कि क्या करना है ओर फिर उसे करनेकी इच्छा होनी चाहिये । जब इन दोनों क्रियाओंमेंसे किसीमें कुछ खराबी आ जाती है -- उदाहरणार्थ, मनमें योजना बनानेकी और उसे कार्यान्वित करनेकी क्षमता -- जब दोनों गलत काम करने लगती हैं, तभी व्यक्तिको अपनी उचित कार्य-कुशलताके बारेमें चिंता सताने लगती है । उदाहरणके लिये, सवेरे उठनेपर यदि तुम्हें यह पता न हो या याद न रहे कि तुम्हें उठना, हाथमुह धोना, कपड़े पहनना, नाश्ता करना है और इधर-उधरके काम करने है तो तुम अपनेसे कहोगे : ''अरे! क्या बात है, कहीं कुछ दालमें काला है -- मुझे यह भी पता नहीं है कि मुझे क्या करना, जरूर कहीं कुछ गड़बड़ा है ।''
बादमें, यदि यह जानकर कि तुम्हें, क्या करना है -- कि तुम्हें, उठकर, नहा-धोकर कपड़े पहनने है - पर तुम उसे कर न सको : कोई चीज, प्रेरित करनेवाली शक्ति काम न करे या शरीरपर उसका कोई असर न हो तो एक बार फिर तुम चिंता करने' लगोगे ओर कहोगे : ''हाय राम! कहीं मै बीमार तो नहीं पंड गया? ''
अन्यथा तुम्हें इसका भानतक न होता कि सारा जीवन ऐसा ही है । यह तुम्हें नितांत स्वाभाविक लगता है, बस, ''यह ऐसा ही'' है । इसका मतलब यह है कि कर्म करते हुए तुम अर्ध-सचेतन मी नहीं होते, यह तो म्वतचालित, सहज आदत है और तुम कर्म करते हुए अपनी ओर ध्यान भी नहीं देते । इसलिये, यदि तुम अपनी वृत्तियोंका वशमें करना चाहते हो तो पहली चीज है यह जानना कि क्या हो रहा है ।
२४७ मूलत: शायद यही कारण है कि चीजे हमेशा ठीक-ठीक नहीं चलतीं । यदि सब कुछ सहज-सामान्य लयसे चलता रहे तो हम कभी अपने कर्मके प्रति सचेतन नहीं होंगे; अपने-आप सहज रूपसे आदतके अनुसार सोचे-विचारे बिना सब कुछ करते जायेंगे, आत्म-निरीक्षण नहीं करेंगे । अतः कमी मी आत्म-प्रभुत्व नही प्राप्त कर सकेंगे । यह कुछ ऐसी चीज होगी, अपनेको पीछेसे व्यक्त करती कही कोई धुधली-सी चेतना जो तुमसे काम करवाती है, पर तुम्हें उसका ख्याल भी नहीं होता । और यदि कहीं कोई परायी या अनजानी शक्तिकी लहर आ जाय तो वह तुमसे कुछ भी करवा सकती है, तुम उस प्रक्रियाका समझ भी न सकोगे जिससे वह तुमसे काम करा लेती है । और वास्तवमें यही होता है ।
जब मनुष्य प्रक्रियासे पूरी तरह सचेत हों जाता है, जब वह जीवनकी कार्य-शैलीके विज्ञानसे, जीवनकी गतिविधि ओर प्रक्रियासे अवगत हो जाता है तभी वह स्वयंको संयमित करना शुरू करता है, वरना पहले ता वह संयमकी बात बिलकुल नहीं सोचता । हां, यदि कुछ अप्रिय बात हों जाय, जैसे, तुम कोई काम करो और उसके दुःखद फल हाथ आयें तो तुम सोचते हां : ''अच्छा, तो मुझे वह काम बन्द कर देना चाहिये,'' और तब, उस मुहूर्त तुम यह अनुभव करते हों कि ''कैसे जिया जाय'' -- इसका भी अपना पूरा तकनीकी शास्त्र है और अपने जीवनपर अधिकार पा सकनेके लिये इसका ज्ञान आवश्यक है! अन्यथा मनुष्य क्रियाओं-प्रतिक्रियाओंका, आवेगों- प्रवेगोंका न्यूनाधिक समन्वित ढेर होता है । उसे कुछ भी पता नहीं होता कि चीजों कैसे होता है । यह वही चीज है जो जीवनके आघातोंसे, रगड़से और ऊपरसे देखनेवाली अव्यवस्थाओंसे सत्तामें बनता है ओर जिसमें बहुत छोटे बच्चोंकी चेतना गाढ़ी जाती है । छोटा बच्चा बिलकुल अचेतन होता है, धीरे-धीरे, बहुत धीरे उसे चीजोंका भान होता है । पर यदि कोई विशेष सावधानी न बरती जाय तो लोग जानें बिना ही कि वे कैसे जीते है, अपनी सारी-की-सारी जिन्दगी गुजार देते है । उन्हें इसका भान- तक नहीं होता ।
अतः कुछ भी हों सकता है ।
लेकिन यह तो भौतिक जगत्में अपने बारेमें सचेतन होनेका सबसे पहला
छोटा-सा कदम है ।
तुममें कुछ धुंधले-से विचार और भगवनाएं होती है, होती है न? जो कम या ज्यादा तर्कसंगत रूपसे विकसित होती है (कम ही, ज्यादा नल।); उससे तुमपर हल्की-सी छाप पड़ती है और फिर जव- तुम झुलस जाते हो तो तुम्हें, पता लगता है कि कुछ गड़बड़ है, जब तुम गिरकर चोट लगा
लेते हो तो समझ जाते हो कि कहीं कुछ गड़बड़ है -- यह तुम्हें, सोचनेको प्रेरित करता है कि इस या उस चीजपर तुम्हें, ध्यान देना चाहिये ताकि तुम गिर न पडो, जल न जाओ, खुदको चोट न पहुंचाओ । यह बात धीरे-धीरे बाह्य अनुभव और बाह्य संस्पशोंसे ही आती है । नहीं तो आदमी अर्ध-चेतनका ढेर है जो यह जाने बिना चलता-फिरता है कि वह क्यों और कैसे चल-फिर रहा है ।
यह अचेतनताकी आदिम अवस्थासे उबरनेके लिये बहुत छोटा-सा आरंभ
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